दिल के छाले तुम्हें दिखा रहा हूं हो सके तो मरहम लगाना ।नमक से तो पहले भी छटपटा रहा हूं।
दिल के छाले तुम्हें दिखा रहा हूं हो सके तो मरहम लगाना ।नमक से तो पहले भी छटपटा रहा हूं।
इंसान होकर भी उन्होंने इंसान न माना मुझे। विज्ञान कहता है इंसान बंदर का रिश्तेदार है मगर उन्होंने बंदर भी न माना मुझे।।
मानव समाज से दूर एक व्यथित, कुंठित और बंदर नुमा शक्ल वाला जीव है।जिसे कोई लोग दिव्यांग करते हैं। कोई विकलांग करते हैं। कोई अपंग तो कोई निशक्त। अनेक नामों से पुकारे जाने वाला यह प्राणी। आज अपेक्षा की काबिल नहीं उपेक्षा के काबिल समझा जाता है ।क्या यह इंसान नहीं है जब जानवरों के प्रति करुणा का भाव आ सकता है ।दया का भाव सकता है। समानता का भाव आ सकता है। सहयोग का भाव आ सकता है। प्रोत्साहन का भाव आ सकता है तो इस दिव्यांग वर्ग के प्रति क्यों नहीं। शर्म आती है मुझे जब मैं इस समाज को देखता हूं जो अपने आप को पूर्ण व्यक्तित्व कहता है।
विकलांग की जीवन की अधिकांश समस्याओं की ओर हमने अभी तक ध्यान नही दिया है।अपने सामाजिक परिसर में हम जिन्हें विकलांग कहते है, उनके प्रति उपेक्षा और घृणा से मिश्रित दयाभाव का ही हमारे भीतर सृजन होता है।हम भूल जाते है कि महाराज विदेह जनक की सभा मे अष्टावक्र की अंगरचना के विकलांग वर्ग की बौद्धिक श्रेष्ठता का जयघोष किया था , तैमूरलंग के अभियानों ने विकलांगो की विजय आकांक्षा का शंखदान किया था, सूरदास की बन्द आंखों ने वात्सल्य और श्रृंगार के अंधेरे कोनो का सजग उदघाटन किया था, मिल्टन के लुप्त नेत्र ज्योति ने ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की प्रखर सर्जना की थी। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में बिखरे हुए है, फिर भी समाज की धारणा विकलांगो के प्रति अत्यंत उपेक्षा पूर्ण है।उनकी आकृति तथा अंग संचालन का उपहास किया गया है अथवा उन्हें दया का पात्र बनकर परजीवी घोषित किया गया है। शताब्दियों से उपेक्षित उन्ही विकलांगो की समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से 1981 को अंतरराष्ट्रीय विकलांग वर्ष घोषित किया गया।
सारे विश्व मे विकलांगो की संख्या लगभग 475लाख से 500लाख तक होगी।केवल भारत मे ही लगभग 186लाख विकलांग है। समूचे देश में विकलांगो को कही नैसर्गिक विकलांगता का सामना करना पड़ता है, तो कही दुर्घटनाओ , रोगी तथा असमाजिक तत्वों द्वारा विकलांगता का सामना करना पड़ता है। अधिकांश विकलांग ऐसे अनुभव करते है कि समाज उनके प्रति उपेक्षा भाव रखते है, लोग उनसे घृणा करते है।अपने समूचे जीवन को अर्थ हीन मान कर असहाय और विवश जीवन बिताने के लिए बाध्य विकलांग की समस्याओं भिक्षावृति से जुड़कर और भी दुः खद हो जाती है।तिस्कृत विकलांग समाज से टूट कर , लोगो के दुव्र्यवहार से पीड़ित होकर भीख मांगने के लिए विवश हो जाते है। स्थिति यह है को भारत मे लगभग 1करोड़ भिखारी है, जिसमे 20 लाख भिखारी अपंग है।प्रारंभ में भीख मांगना एक विवशता हो सकती है, लेकिन बाद में यह आदत बन जाती है। निराश्रित विकलांगो के पास भीख मांगने की अपनी न्यूमतम आवश्यताओ की पूर्ति के साधन रह जाता है।अब समय आ गया है कि हम अपने परिवेश के इन विकलांगो की समस्याओं को अपनी समस्या समझे और उनके कुण्डित व्यक्तित्व को विकास की सही दिशा दे।शरीर कब विकलांग हो जाने पर भी मन मे घोड़े विकलांग नही हो जाते है, उसकी उड़ान सभी दिशाओं का स्पर्श करती है।वस्ततुः विकलांगो की दया की नही , सहयोग की आवश्यता है, सहानुभूति की नही साहचर्य की आवश्यता है।कृतिम अंग प्रत्यारोपण एवं आर्थिक सववलंबन की सुविधा प्रदान करने से उनका मानसिक विकास हो सकता है।
विकलांगो की जिजीविषा को ऊंचाई प्रदान करने , एक सम्मानित स्तर प्रदान करने की कोशिश ही समाज के इस उपेक्षित वर्ग को सही स्तर पर ला सकती है । व्यवस्था की कमजोरी ने विकलांगो की समस्याओ के समाधान की दिशा में अपनी शिथिलता दिखलायी है।
आखिर कब तक हम प्रदर्शन की वस्तु बंद बने रहेंगे। आखिर कब तक हम उपेक्षा का शिकार होते रहेंगे ।आखिर कब मिलेगा हमें न्याय कब मिलेगा हमें समानता का हमारे जेष्ठ श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों ने कहा है जब हक मांगने से नहीं मिले छीन लेना चाहिए और अब आवश्यकता है कि हमें हमारा हक मांगना नहीं छीनना होगा ।आगे आना होगा लड़ना होगा ।संघर्ष करना होगा। रण करना होगा ।एकता के लिए सामाजिक समभाव के लिए समरसता के लिए ।
तुम साथ तो दो मेरा चलना मुझे आता है। हर आग से वाकिफ हूं. जलना मुझे आता है ।यह जीवन का पुतला जल जाए भी तो क्या। मरने के लिए ऐसा कोई दौर ना आएगा। मरने के लिए ऐसा कोई दौर ना आएगा ।आइए संघर्ष के मैदान में चलें अपने हक के आंधियों में नहीं तूफान में चले।
चतरसिंह गेहलोत बड़वानी
9993803698
इंसान होकर भी उन्होंने इंसान न माना मुझे। विज्ञान कहता है इंसान बंदर का रिश्तेदार है मगर उन्होंने बंदर भी न माना मुझे।।
मानव समाज से दूर एक व्यथित, कुंठित और बंदर नुमा शक्ल वाला जीव है।जिसे कोई लोग दिव्यांग करते हैं। कोई विकलांग करते हैं। कोई अपंग तो कोई निशक्त। अनेक नामों से पुकारे जाने वाला यह प्राणी। आज अपेक्षा की काबिल नहीं उपेक्षा के काबिल समझा जाता है ।क्या यह इंसान नहीं है जब जानवरों के प्रति करुणा का भाव आ सकता है ।दया का भाव सकता है। समानता का भाव आ सकता है। सहयोग का भाव आ सकता है। प्रोत्साहन का भाव आ सकता है तो इस दिव्यांग वर्ग के प्रति क्यों नहीं। शर्म आती है मुझे जब मैं इस समाज को देखता हूं जो अपने आप को पूर्ण व्यक्तित्व कहता है।
विकलांग की जीवन की अधिकांश समस्याओं की ओर हमने अभी तक ध्यान नही दिया है।अपने सामाजिक परिसर में हम जिन्हें विकलांग कहते है, उनके प्रति उपेक्षा और घृणा से मिश्रित दयाभाव का ही हमारे भीतर सृजन होता है।हम भूल जाते है कि महाराज विदेह जनक की सभा मे अष्टावक्र की अंगरचना के विकलांग वर्ग की बौद्धिक श्रेष्ठता का जयघोष किया था , तैमूरलंग के अभियानों ने विकलांगो की विजय आकांक्षा का शंखदान किया था, सूरदास की बन्द आंखों ने वात्सल्य और श्रृंगार के अंधेरे कोनो का सजग उदघाटन किया था, मिल्टन के लुप्त नेत्र ज्योति ने ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की प्रखर सर्जना की थी। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में बिखरे हुए है, फिर भी समाज की धारणा विकलांगो के प्रति अत्यंत उपेक्षा पूर्ण है।उनकी आकृति तथा अंग संचालन का उपहास किया गया है अथवा उन्हें दया का पात्र बनकर परजीवी घोषित किया गया है। शताब्दियों से उपेक्षित उन्ही विकलांगो की समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से 1981 को अंतरराष्ट्रीय विकलांग वर्ष घोषित किया गया।
सारे विश्व मे विकलांगो की संख्या लगभग 475लाख से 500लाख तक होगी।केवल भारत मे ही लगभग 186लाख विकलांग है। समूचे देश में विकलांगो को कही नैसर्गिक विकलांगता का सामना करना पड़ता है, तो कही दुर्घटनाओ , रोगी तथा असमाजिक तत्वों द्वारा विकलांगता का सामना करना पड़ता है। अधिकांश विकलांग ऐसे अनुभव करते है कि समाज उनके प्रति उपेक्षा भाव रखते है, लोग उनसे घृणा करते है।अपने समूचे जीवन को अर्थ हीन मान कर असहाय और विवश जीवन बिताने के लिए बाध्य विकलांग की समस्याओं भिक्षावृति से जुड़कर और भी दुः खद हो जाती है।तिस्कृत विकलांग समाज से टूट कर , लोगो के दुव्र्यवहार से पीड़ित होकर भीख मांगने के लिए विवश हो जाते है। स्थिति यह है को भारत मे लगभग 1करोड़ भिखारी है, जिसमे 20 लाख भिखारी अपंग है।प्रारंभ में भीख मांगना एक विवशता हो सकती है, लेकिन बाद में यह आदत बन जाती है। निराश्रित विकलांगो के पास भीख मांगने की अपनी न्यूमतम आवश्यताओ की पूर्ति के साधन रह जाता है।अब समय आ गया है कि हम अपने परिवेश के इन विकलांगो की समस्याओं को अपनी समस्या समझे और उनके कुण्डित व्यक्तित्व को विकास की सही दिशा दे।शरीर कब विकलांग हो जाने पर भी मन मे घोड़े विकलांग नही हो जाते है, उसकी उड़ान सभी दिशाओं का स्पर्श करती है।वस्ततुः विकलांगो की दया की नही , सहयोग की आवश्यता है, सहानुभूति की नही साहचर्य की आवश्यता है।कृतिम अंग प्रत्यारोपण एवं आर्थिक सववलंबन की सुविधा प्रदान करने से उनका मानसिक विकास हो सकता है।
विकलांगो की जिजीविषा को ऊंचाई प्रदान करने , एक सम्मानित स्तर प्रदान करने की कोशिश ही समाज के इस उपेक्षित वर्ग को सही स्तर पर ला सकती है । व्यवस्था की कमजोरी ने विकलांगो की समस्याओ के समाधान की दिशा में अपनी शिथिलता दिखलायी है।
आखिर कब तक हम प्रदर्शन की वस्तु बंद बने रहेंगे। आखिर कब तक हम उपेक्षा का शिकार होते रहेंगे ।आखिर कब मिलेगा हमें न्याय कब मिलेगा हमें समानता का हमारे जेष्ठ श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों ने कहा है जब हक मांगने से नहीं मिले छीन लेना चाहिए और अब आवश्यकता है कि हमें हमारा हक मांगना नहीं छीनना होगा ।आगे आना होगा लड़ना होगा ।संघर्ष करना होगा। रण करना होगा ।एकता के लिए सामाजिक समभाव के लिए समरसता के लिए ।
तुम साथ तो दो मेरा चलना मुझे आता है। हर आग से वाकिफ हूं. जलना मुझे आता है ।यह जीवन का पुतला जल जाए भी तो क्या। मरने के लिए ऐसा कोई दौर ना आएगा। मरने के लिए ऐसा कोई दौर ना आएगा ।आइए संघर्ष के मैदान में चलें अपने हक के आंधियों में नहीं तूफान में चले।
चतरसिंह गेहलोत बड़वानी
9993803698
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